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टारगेट पोस्ट नई दिल्ली।

भारत में चुनावो का मौसम आ गया है , हर 5 साल में लगने वाले इस मेले में कई राजनितिक पार्टियां अपनी अपनी दुकानें लगा कर भारी मुनाफा कमाने की कोशिश में बैठी हैं। किसी ने अपनी चुनावी दुकान पे जाती, पंथ और मज़हब के खिलौने सजा रखे हैं तो कोई सिद्धांत की मिठाइयां बेच रहा है। कोई व्यक्तित्व के पकौड़े तल रहा है तो कोई भाषा के घोड़े पे विचारधारा की सवारियां घुमा रहा है। इस तरह सभी वोट रूपी धन कमा कर अपनी जेबें भर लेना चाहते हैं!
भारतीय मतदाता भी इस मेले का आनंद लेने का मौका चूकना नहीं चाहता इसलिए वो भी घूम घूम कर हर चुनावी ठेले, दूकान का सामान टटोल रहा है। कुछ मतदाता इस मेले के मौके पे मिलने वाले मुफ्त उपहारों का मज़ा लेना चाहते हैं। पर इस पूरे आयोजन की अपनी एक गंभीरता है क्यूंकि यह आने वाले समय में, भारतवर्ष से सम्बंधित हर विषय पर अपना प्रभाव छोड़नेवाली नीतियों को रचने वाले सांसद, देश को देगा।


भारतीय राजनीति भी अन्य देशों की तरह ही जटिल और घुमावदार है और इसमें अनेक प्रकार के पेचीदा पहलू हैं। उनमें एक बड़ा पहलू है, भारतीय राजनीती में धार्मिक और आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभाव! हालांकि ये प्रभाव समकालीन विश्व की ही कोई घटना नहीं है, अपितु पुरातन काल से ही राजसत्ता धर्मसत्ता से मार्गदर्शन लेती रही है। पुरातन काल में इंद्र के गुरु बृहस्पति, भगवान श्रीराम एवं राजा दशरथ के गुरु ब्रह्मऋषि वशिष्ठ, भगवान कृष्ण के गुरु सांदीपनि, राजा चन्द्रगुप्त मौर्या के गुरु चाणक्य, सिखों के सभी गुरु ऐसे उदाहरण है जो बताते हैं कि धर्म और अध्यात्म ने सदैव ही उस समय के शासकों को सही सीख एवं रास्ता दिखाया है। आज भी अलग अलग राज्यों में अलग अलग धर्मगुरु अपना प्रभाव रखते हैं एवं चुनावो के परिणामों को प्रभावित करने का पूरा सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए उनके मन को भापना, सभी राजनीतिज्ञों के लिए समय की जरुरत भी है!

आज के समय की बात करे तो भले ही शासन का तरीका राजशाही से बदलकर लोकतंत्र का हो गया है परन्तु धर्म आज भी राजनीति पर अपना गहरा प्रभाव रखता है। हम अक्सर सत्संग एवं धार्मिक कार्यक्रमों में राजनितिक व्यक्तित्वों की उपस्थिति को देख सकते हैं। कई आयोजनों में तो राजनीतिज्ञ बड़ी ही सक्रिय भूमिका में नज़र आते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि ऐसी सभाओं के द्वारा जनमानस से मन एवं समर्थन दोनो जोड़ा जा सकता है। कुछ वर्ष पहले ऐसा एक उदाहरण देखा गया था, जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन का कार्यकाल पूरा कर संत आसारामजी बापू के सत्संग में आए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके सत्संग में आ चुके हैं। खैर वे प्रधानमंत्री बनने के बाद गंगा आरती से लेकर राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा तक कई धार्मिक आयोजनों का हिस्सा बनते देखे गए हैं। हालत ये है कि सभी पार्टियों के सभी नेता अब इसे साधने के लिए मंदिरों, मठों एवं धर्मगुरूओं के कार्यक्रमों में चक्कर लगाते देखे जा सकते हैं। लेकिन ज्ञात रहे कि वर्तमान में आसारामजी बापू के लाखों समर्थक सरकार के रवैए से असंतुष्ट दिखते हैं। उनका मानना है कि निर्दोष होते हुए भी, आसारामजी बापू को हिंदू समर्थक सरकार से अभी तक उचित न्याय नहीं मिला है। पिछले कुछ दिनों से उनके लाखों समर्थक शांतिपूर्ण ढंग से सड़कों पर न्याय की मांग रखते हुए रैलियां, धरना प्रदर्शन करते हुए भी देखे गए हैं।

ऐसे में भारत के राजनीतिज्ञों को देश की नब्ज़ को समझने की ज़रूरत है। क्योंकि वोट के आकर्षण में ही सही, जब जब वे धर्म के छाया में आए हैं और इसका उन्हें फायदा ही मिला है । पिछले दो चुनाव इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है एवं आगे भी हम देखेंगे की भारत की राजनीति में वही सितारे चमकेंगे जो धर्म एवं आध्यात्मिक गुरुओं को उचित सम्मान एवं महत्व देंगे एवं समसामयिक समस्याओं के निदान का एक तार्किक समाधान दे पाएंगे!

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